कल एक शुभचिंतक ने अचानक से पूछा. थोडा सा ठहरने के बाद मेरे उत्तर था कि कुछ लिखने के लिये जमीनी काम होना जरूरी है अन्यथा मेरा लिखना वैसा ही होगा जैसे बिना चरखी के पतंग.
पन्नों की कमी नहीं है इस सोशियल मीडिया के जमाने में और यही कारण है कि काम से ज्यादा बेकाम की बातें लिखी जा रही हैं.
लेकिन जनाब अपना काम कर चुके थे और मुझे कुछ लिखने पर मजबूर कर दिया. सोचा कि क्यों न इसी पर लिख डालूं कि लिखता क्यूं नहीं हूं?
मौके लिखने के बहुत आये पर इन पिछले कुछ सालों में, जिंदगी एक अपने नए पड़ाव से गुज़री. बहुत सारे आंदोलन किये, बहुत रैलियां निकलीं, बहुत कोशिशें की मजबूर के हालात बदलने की. जो किया ,दिल से किया तो कोई ग़म नहीं था की कुछ किया नहीं. लेकिन कुछ उनके लिए भी किया जाये जो अपना घर छोड़ बक्सा लिए हमारे साथ चल दिए हैं. बारी आयी नौकरी, घर, परिवार और स्वयं के लिए कुछ करने की. जिंदगी के इस दौर में भी, किसी न किसी तरीके से अपने आप को सामाजिक मुद्दों से जोड़े रखने की कोशिश जारी रही लेकिन वो बात नहीं थी.
ऐसा नहीं है कि सामाजिक मुद्दे खत्म हो गए. गरीबी, असमानता, भ्रष्टाचार ज्यों की त्यों बरकरार हैं. इनके साथ साथ धार्मिक समभाव, व्यक्तिगत वैचारिक स्वंत्रता और एक मजबूत विपक्ष की कमी पैदा हो गयी. पहले क्या काम वजह थीं मेरे(हिन्दू), यास्सेर(मुस्लमान), रेमेडी(ईसाई) और सिमरन(सिख) के बीच लड़ने की, कुछ और नयी वजह शामिल हो गयी. राष्ट्रीयता का अर्थ बदल कर छद्म राष्ट्रीयता को राष्ट्रीयता की परिभाषा घोषित कर दिया गया. हर मुद्दे पर लोगों का रास्ता रोक खड़े होना, चीख चीख कर टीवी पर दलीलें देना आम हो गया.
राजनीति, लोकनीति से धर्म नीति, गाय नीति, जाति नीति में तब्दील हो गयी. जिन लोगों को लोगों की आवाज उठाने के लिए चुना गया, वो एक पार्टी विशेष की आवाज बन गए. लोगों के पास अपनी आवाज उठाने के जरिये ख़त्म हो गए. राजनीति, बड़े घरों की मनमानी करने की नीति बन गयी है. जिसको सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए चुना, उसको चुनाव के दिन जीतने पर उसी सरकार द्वारा खरीद लेना आम हो गया.
कल ही एक नयी टर्म देखि - इंटेंशनल कम्युनिटी. अगर लोकतंत्र समाज के हर वर्ग का ख्याल रखने में विफल है तो ये लोकतंत्र काफी हुआ, समय समाज तंत्र का आने वाला है जहाँ नीतियां व्यकितिगत से उठकर समाज के स्तर पर बनायीं जाएँगी. सिक्के का एक पहलू दूसरे पहलू को गलत साबित करने पर तुला है. ये लड़ाई किसी भी पहलू का भला नहीं कर रही है. फायदा उस वर्ग को हो रहा है जिसका कोई पहलू है ही नही. ऐसा लगता है कि दोनों पहलूओं को एक साथ बिठाकर न्यूनतम साझा नीतियों पर चर्चा होनी चाहिए और एक कदम दोनों को मिलकर उठाना होगा.
परिवर्तन लाने के तरीके पुराने हो गए हैं, कुछ और सोचना होगा और तब तक, कुछ लिखने की हिम्मत नहीं है. फिर भी कोशिश जारी है.....